top of page
  • Writer's pictureadmin@sahityakiran

अंधेरे में’ मुक्तिबोध की लंबी कविता

‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की लंबी कविता है। पीड़ा, दुःख-दर्द, भीतरी संत्रास, मौन आक्रोश, उद्वेलन, दबा विद्रोह, घुटन, घबराहट, भय, मानसिक दोहन, अर्थाभाव और असुरक्षा से आतंकित स्थिति, भविष्य और वर्तमान की चिंताएं, लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर फैला घना अंधेरा, असंमजस, निराशाभरा माहौल, अमानवीय और दोहित शोषित स्थितियों का बखान, सपनों का टूटना और भ्रमों का भंग होना, संसदीय व्यवस्था के ऊपर का भरौसा टूटना, पूंजीवादिता, धर्म, वर्ण और जातिवाद के तहत निर्मित भयानक स्थितियां, मूल्यों का पतन, लूट और मक्कारी के चलते रोजमर्रा के लिए रोटी के लाले पड़ना, तिकड़मबाजी, मशाल को बार-बार जलाने की कोशिश में बूझने का दुःख, धुंधलापन, धुसरता, विवशता, मजबुरियां... और भी बहुत कुछ है इस कविता में। जिसे, पढ़ सुन, देख अपना मन आतंकित होता है और एक घने काले अंधेरे में खो जाता है। जिन स्थितियों में इसे कवि ने लिखा वह रिस-रिसकर कविता में उतरी है। इस कविता में ही नहीं तो मुक्तिबोध की बाकी रचनाओं में भी यहीं भाव बार-बार उभरकर उठ जाते हैं



जिंदगी के...

कमरों में अँधेरे

लगाता है चक्कर

कोई एक लगातार;

आवाज पैरों की देती है सुनाई

बार-बार... बार-बार,

वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,

किंतु वह रहा घूम

तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,

भीत-पार आती हुई पास से,

गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा

अस्तित्व जनाता

अनिवार कोई एक,

और मेरे हृदय की धक्-धक्

पूछती है - वह कौन

सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !

इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से

फूले हुए पलस्तर,

खिरती है चूने-भरी रेत

खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह -

खुद-ब-खुद

कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,

स्वयमपि

मुख बन जाता है दिवाल पर,

नुकीली नाक और

भव्य ललाट है,

दृढ़ हनु

कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।

कौन वह दिखाई जो देता, पर

नहीं जाना जाता है !

कौन मनु ?


बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब...

अँधेरा सब ओर,

निस्तब्ध जल,

पर, भीतर से उभरती है सहसा

सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति

कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है

और मुसकाता है,

पहचान बताता है,

किंतु, मैं हतप्रभ,

नहीं वह समझ में आता।


अरे ! अरे !!

तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष

चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक

वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,

शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर

चीख, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात् -

वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक

तिलस्मी खोह का शिला-द्वार

खुलता है धड़ से



घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी

अंतराल-विवर के तम में

लाल-लाल कुहरा,

कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,

रहस्य साक्षात् !!


तेजो प्रभामय उसका ललाट देख

मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर

गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख

संभावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर

विलक्षण शंका,

भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्

गहन एक संदेह।


वह रहस्यमय व्यक्ति

अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है

पूर्ण अवस्था वह

निज-संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,

हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,

आत्मा की प्रतिमा।


प्रश्न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी,

इसी लिए बाहर के गुंजान

जंगलों से आती हुई हवा ने

फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी -

कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर

मौत की सजा दी !


किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही

आँखों में बँध गयी,

किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,

किसी शून्य बिंदु के अँधियारे खड्डे में

गिरा दिया गया मैं

अचेतन स्थिति में !


2


सूनापन सिहरा,

अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,

शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,

मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर,

छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें

मीठी है दुःसह !!

अरे, हाँ, साँकल ही रह-रह

बजती है द्वार पर।

कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही

बुलाता है - बुलाता है

हृदय को सहला मानो किसी जटिल

प्रसंग में सहसा होठों पर

होठ रख, कोई सच-सच बात

सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर

वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी -

इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर

आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?

विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ

द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा -

भोला-भाला भाव -

पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है

यह वही व्यक्ति है, जी हाँ !

जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।

अवसर-अनवसर

प्रकट जो होता ही रहता

मेरी सुविधाओं का न तनिक खयाल कर।

चाहे जहाँ, चाहे जिस समय उपस्थित,

चाहे जिस रूप में

चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत,

इशारे से बताता है, समझाता रहता,

हृदय को देता है बिजली के झटके

अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,

गालों पर चट्टानी चमक पठार की

आँखों में किरणीली शांति की लहरें

उसे देख, प्यार उमड़ता है अनायास!

लगता है - दरवाजा खोलकर

बाँहों में कस लूँ,

हृदय में रख लूँ

घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे

परंतु, भयानक खड्डे के अँधेरे में आहत

और क्षत-विक्षत, मैं पड़ा हुआ हूँ,

शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ जरा भी

(यह भी तो सही है कि कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)

इसीलिए टालता हूँ उस मेरे प्रिय को

कतराता रहता,

डरता हूँ उससे।

वह बिठा देता है तुंग शिखर के

खतरनाक, खुरदरे कगार-तट पर

शोचनीय स्थिति में ही छोड़ देता मुझको।

कहता है - "पार करो पर्वत-संधि के गह्वर,

रस्सी के पुल पर चलकर

दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो"

अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,

मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से

बजने दो साँकल!!

उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,

वह जन - वैसे ही

आप चला जायेगा आया था जैसा।

खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा

पीड़ाएँ समेटे !

क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,

इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा

की हुई उसकी

(सह नहीं सकता)

विवेक-विक्षोभ महान् उसका

तम-अंतराल में (सह नहीं सकता)

अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा

भविष्य का नक्शा दिया हुआ उसका

सह नहीं सकता !

नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,

सहना पड़े - मुझे चाहे जो भले ही।


कमज़ोर घुटनों को बार-बार मसल,

लड़खड़ाता हुआ मैं

उठता हूँ दरवाजा खोलने,

चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे

पोंछता हूँ हाथ से,

अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर

बढ़ता हूँ आगे,

पैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव,

हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,

मस्तक अनुभव करता है, आकाश

दिल में तड़पता है अँधेरे का अंदाज,

आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,

केवल शक्ति है स्पर्श की गहरी।

आत्मा में, भीषण

सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी।

विचार हो गए विचरण-सहचर।

बढ़ता हूँ आगे,

चलता हूँ सँभल-सँभलकर,

द्वार टटोलता,

जंग खायी, जमी हुई जबरन

सिटकनी हिलाकर

जोर लगा, दरवाजा खोलता

झाँकता हूँ बाहर...

सूनी है राह, अजीब है फैलाव,

सर्द अँधेरा।

ढीली आँखों से देखते हैं विश्व

उदास तारे।

हर बार सोच और हर बार अफसोस

हर बार फ़िक्र

के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ

अँधियारा पीपल देता है पहरा।

हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती

कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज,

टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।

काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फासले

(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)


इतने में अँधियारे सूने में कोई चीख गया है

रात का पक्षी

कहता है -

"वह चला गया है,

वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं

अब तेरे द्वार पर।

वह निकल गया है गाँव में शहर में !

उसको तू खोज अब

उसका तू शोध कर!

वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,

उसका तू शिष्य है (यद्यपि पलातक...)

वह तेरी गुरु है,

गुरु है..."


3


समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या

जागृति शुरू है।

दिया जल रहा है,

पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है,

आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ

लगती हैं छपी हुई जड़ चित्राकृतियों-सी

अलग व दूर-दूर

निर्जीव !!

यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में

यहाँ पड़ा हुआ हूँ

आँखें खुली हुई हैं,

पीटे गये बालक-सा मार खाया चेहरा

उदास इकहरा,

स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर

भूत-जैसी आकृति -

क्या वह मैं हूँ ?

मैं हूँ ?


रात के दो हैं,

दूर-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,

पास-पास आती हुई घहराती गूँजती

किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज !!

किसी अनपेक्षित

असंभव घटना का भयानक संदेह,

अचेतन प्रतीक्षा,

कहीं कोई रेल-एक्सीडेंट न हो जाय।

चिंता के गणित अंक

आसमानी-स्लेट-पट्टी पर चमकते

खिड़की से दीखते।


... ... ...


हाय! हाय! तॉल्सतॉय

कैसे मुझे दीख गये

सितारों के बीच-बीच

घूमते व रुकते

पृथ्वी को देखते।


शायद तॉल्सतॉय-नुमा

कोई वह आदमी

और है,

मेरे किसी भीतरी धागे का आखिरी छोर वह

अनलिखे मेरे उपन्यास का

केंद्रीय संवेदन

दबी हाय-हाय-नुमा।

शायद, तॉल्सतॉय-नुमा।


प्रोसेशन ?

निस्तब्ध नगर के मध्य-रात्रि-अँधेरे में सुनसान

किसी दूर बैंड की दबी हुई क्रमागत तान-धुन,

मंद-तार उच्च-निम्न स्वर-स्वप्न,

उदास-उदास ध्वनि-तरंगें हैं गंभीर,

दीर्घ लहरियाँ !!

गैलरी में जाता हूँ, देखता हूँ रास्ता

वह कोलतार-पथ अथवा

मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा

बिजली के द्युतिमान दिये या

मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूना!!


किंतु दूर सड़क के उस छोर

शीत-भरे थर्राते तारों के अँधियारे तल में

नील तेज-उद्भास

पास-पास पास-पास

आ रहा इस ओर!

दबी हुई गंभीर स्वर-स्वप्न-तरंगें,

शत-ध्वनि-संगम-संगीत

उदास तान-धुन

समीप आ रहा!!

और, अब

गैस-लाइट-पाँतों की बिंदुएँ छिटकीं,

बीचों-बीच उनके

साँवले जुलूस-सा क्या-कुछ दीखता!!


और अब

गैस-लाइट-निलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे,

बैंड-दल,

उनके पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था

दीखता,

घना व डरावना अवचेतन ही

जुलूस में चलता।

क्या शोभा-यात्रा

किसी मृत्यु दल की ?


अजीब!!

दोनों ओर, नीली गैस-लाइट-पाँत

रही जल, रही जल।

नींद में खोये हुए शहर की गहन अवचेतना में

हलचल, पाताली तल में

चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार

लकीरों की वारदात !!

सब सोये हुए हैं।

लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा

रोमांचकारी वह जादुई करामात!!


विचित्र प्रोसेशन,

गंभीर क्विक मार्च...

कलाबत्तूवाला काला जरीदार ड्रेस पहने

चमकदार बैंड-दल -

अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति

आँतों के जालों से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर

गंभीर गीत-स्वप्न-तरंगें

उभारते रहते,

ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर।

बैंड के लोगों के चेहरे

मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से

लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार

इसी नगर के !!

बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैंड-दल में !

उनके पीछे चल रहा

संगीन नोकों का चमकता जंगल,

चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत

टैंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,

धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,

सैनिकों के पथराये चेहरे

चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे !

शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था।

शायद, उनमें कई परिचित !!

उनके पीछे यह क्या !!

कैवेलरी !

काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस,

चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ

आधा भाग कोलतारी भैरव,

आबदार !!

कंधे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।

कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल,

रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,

कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल

कई और सेनापति सेनाध्यक्ष

चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,

उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,

उनके लेख देखे थे,

यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं

भई वाह!

उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण

मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

बनता है बलबन

हाय, हाय !!

यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।

भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब

साफ उभर आया है,

छिपे हुए उद्देश्य

यहाँ निखर आये हैं,

यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।

विचारों की फिरकी सिर में घूमती है


इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर

आँखें उठीं मेरी ओर-भर

हृदय में मानो कि संगीन नोकें ही घुस पड़ीं बर्बर,

सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर -

"मारो गोली, दागो स्साले को एकदम

दुनिया की नजरों से हटकर

छिपे तरीके से

हम जा रहे थे कि

आधीरात - अँधेरे में उसने

देख लिया हमको

व जान गया वह सब

मार डालो, उसको खत्म करो एकदम"

रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल !!

गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर !!


एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये

सब चित्र

जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न,

फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे,

और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक

गहन मृतात्माएँ इसी नगर की

हर रात जुलूस में चलतीं,

परंतु दिन में

बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र

विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में।


हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,

इसकी मुझे और सजा मिलेगी।


4


अकस्मात्

चार का गजर कहीं खड़का

मेरा दिल धड़का,

उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक

चल-विचल हुआ सहसा।

अनगिनत काली-काली हायफन-डैशों की लीकें

बाहर निकल पड़ीं, अंदर घुस पड़ीं भयभीत,

सब ओर बिखराव।

मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ।

काले-काले शहतीर छत के

हृदय दबोचते।

यद्यपि आँगन में नल जो मारता,

जल खखारता।

किंतु न शरीर में बल है

अँधेरे में गल रहा दिल यह।


एकाएक मुझे भान होता है जग का,

अखबारी दुनिया का फैलाव,

फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,

पत्ते न खड़के,

सेना ने घेर ली हैं सड़कें।

बुद्धि की मेरी रग

गिनती है समय की धक्-धक्।

यह सब क्या है

किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह

मॉर्शल-लॉ है!

दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर,

साँस लगी हुई है,

जमाने की जीभ निकल पड़ी है,

कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार

भागता मैं दम छोड़,

घूम गया कई मोड़,

चौराहा दूर से ही दीखता,

वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार

नहीं होगा फिलहाल

दिखता है सामने ही अंधकार-स्तूप-सा

भयंकर बरगद -

सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों,

गरीबों का वही घर, वही छत,

उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे

गृह-हीन कई प्राण।

अँधेरे में डूब गये

डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े

किसी एक अति दीन

पागल के धन वे।

हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।

किंतु आज इस रात बात अजीब है।

वही जो सिर-फिरा पागल कतई था

आज एकाएक वह

जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है।

छोड़ सिर-फिरापन,

बहुत ऊँचे गले से,

गा रहा कोई पद, कोई गान

आत्मोद्बोधमय !!

खूब भई, खूब भई,

जानता क्या वह भी कि

सैनिक प्रशासन है नगर में वाकई!

क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी!


(करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं

गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा)


ओ मेरे आदर्शवादी मन,

ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,

अब तक क्या किया?

जीवन क्या जिया !!


उदरंभरि बन अनात्म बन गये,

भूतों की शादी में कनात-से तन गये,

किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,


दुःखों के दागों को तमगों-सा पहना,

अपने ही खयालों में दिन-रात रहना,

असंग बुद्धि व अकेले में सहना,

जिंदगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,


अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया!!


बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,

करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,

बन गये पत्थर,

बहुत-बहुत ज्यादा लिया,

दिया बहुत-बहुत कम,

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम !!

लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,

जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,

स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,

भावना के कर्तव्य - त्याग दिये,

हृदय के मंतव्य - मार डाले!

बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,

तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,

जम गये, जाम हुए, फँस गये,

अपने ही कीचड़ में धँस गये !!

विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में

आदर्श खा गये !


अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया,

ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम...


मेरा सिर गरम है,

इसीलिए भरम है।

सपनों में चलता है आलोचन,

विचारों के चित्रों की अवलि में चिंतन।

निजत्व-माफ है बेचैन,

क्या करूँ, किससे कहूँ,

कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन?

वैदिक ऋषि शुनःशेप के

शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान ही

व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ

वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में,

पागल था दिन में

सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।


हाय, हाय!

उसने भी यह क्या गा दिया,

यह उसने क्या नया ला दिया,

प्रत्यक्ष,

मैं खड़ा हो गया

किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के

होने लगी बहस और

लगने लगे परस्पर तमाचे।

छिः पागलपन है,

वृथा आलोचन है।

गलियों में अंधकार भयावह -

मानो मेरे कारण ही लग गया

मॉर्शल-लॉ वह,

मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,

मानो मेरे कारण ही दुर्घट

हुई यह घटना।

चक्र से चक्र लगा हुआ है...

जितना ही तीव्र है द्वंद्व क्रियाओं घटनाओं का

बाहरी दुनिया में,

उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में,

चलता है द्वंद्व कि

फिक्र से फ़िक्र लगी हुई है।

आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी,

मेरी नींद गवाँ दी।


मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ।

मेरा यह चेहरा

घुलता है जाने किस अथाह गंभीर, साँवले जल से,

झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के

तिमिर अतल से

घुलता है मन यह।

रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित

कोई गुरु-गंभीर महान् अस्तित्व

महकता है लगातार

मानो खंडहर-प्रसारों में उद्यान

गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में,

महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल।

किंतु वे उद्यान कहाँ हैं,

अँधेरे में पता नहीं चलता।

मात्र सुगंध है सब ओर,

पर, उस महक - लहर में

कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिंता

छटपटा रही है।


5


एकाएक मुझे भान !!

पीछे से किसी अजनबी ने

कंधे पर रक्खा हाथ।

चौंकता मैं भयानक

एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक,

नहीं नहीं। ऊपर से गिरकर

कंधे पर बैठ गया बरगद-पात तक,

क्या वह संकेत, क्या वह इशारा?

क्या वह चिट्ठी है किसी की?

कौन-सा इंगित?

भागता मैं दम छोड़,

घूम गया कई मोड़!!

बंदूक धाँय-धाँय

मकानों के ऊपर प्रकाश-सा छा रहा गेरुआ।

भागता मैं दम छोड़

घूम गया कई मोड़।

घूम गयी पृथ्वी, घूम गया आकाश,

और फिर, किसी एक मुँदे हुए घर की

पत्थर, सीढ़ी दिख गयी, उस पार

चुपचाप बैठ गया सिर पकड़कर !!

दिमाग में चक्कर

चक्कर... भँवरें

भँवरों के गोल-गोल केंद्र में दीखा

स्वप्न सरीखा -


भूमि की सतहों के बहुत-बहुत नीचे

अँधियारी एकांत

प्राकृत गुहा एक।

विस्तृत खोह के साँवले तल में

तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर

मणि तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे,

झरता है जिन पर प्रबल प्रपात एक।

प्राकृत जल वह आवेग-भरा है,

द्युतिमान् मणियों की अग्नियों पर से

फिसल-फिसलकर बहती लहरें,

लहरों के तल में से फूटती हैं किरनें

रत्नों की रंगीन रूपों की आभा

फूट निकलती

खोह की बेडौल भीतें हैं झिलमिल !!

पाता हूँ निज को खोह के भीतर,

विलुब्ध नेत्रों से देखता हूँ द्युतियाँ,

मणि तेजस्क्रिय हाथों में लेकर

विभोर आँखों से देखता हूँ उनको -

पाता हूँ अकस्मात्

दीप्ति में वलयित रत्न वे नहीं हैं

अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष,

मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं

विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि वे

प्राण-जल-प्रपात में घुलते हैं प्रतिपल

अकेले में किरणों की गीली है हलचल

गीली है हलचल !!


6


हाय, हाय! मैंने उन्हें गुहा-वास दे दिया

लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित

जनोपयोग से वर्जित किया और

निषिद्ध कर दिया

खोह में डाल दिया!!

वे खतरनाक थे,

(बच्चे भीख माँगते) खैर...

यह न समय है,

जूझना ही तै है।


सीन बदलता है

सुनसान चौराहा साँवला फैला,

बीच में वीरान गेरुआ घंटाघर,

ऊपर कत्थई बुजर्ग गुंबद,

साँवली हवाओं में काल टहलता है।

रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,

मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,

चार अलग कोण,

कि चार अलग संकेत

(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)

खंभों पर बिजली की गरदनें लटकीं,

शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास

बेचैन खयालों के पंखों के कीड़े

उड़ते हैं गोल-गोल

मचल-मचलकर।

घंटाघर तले ही

पंखों के टुकड़े व तिनके।

गुंबद-विवर में बैठे हुए बूढ़े

असंभव पक्षी

बहुत तेज नजरों से देखते हैं सब ओर,

मानो कि इरादे

भयानक चमकते।

सुनसान चौराहा

बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ्तार,

गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।

भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में

अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक

ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।

पथरीली सलवट

दियासलाई की पल-भर लौ में

साँप-सी लगती।

पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,

मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...

वह ताक रहा है -

संगीन नोंकों पर टिका हुआ

साँवला बंदूक-जत्था

गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो

चौक के बीच में !!

एक ओर

टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,

परंतु अड़ा है!!


भागता मैं दम छोड़,

घूम गया कई मोड़

भागती है चप्पल, चटपट आवाज

चाँटों-सी पड़ती।

पैरों के नीचे का कीच उछलकर

चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा,

ग्लानि की मितली।

गलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा

चेहरे पर आँखों पर करता है हमला।

अजीब उमस-बास

गलियों का रुँधा हुआ उच्छ्वास

भागता हूँ दम छोड़,

घूम गया कई मोड़।

धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,

भय के? या घर के? कह नहीं सकता

आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता

लंबा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,

बेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर।

कहीं कोई नहीं है,

नहीं कहीं कोई भी।

श्याम आकाश में, संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें

चमचमा रही हैं।

मेरा दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है।

कोई मुझे खींचता है रास्ते के बीच ही।

जादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर।

सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो

तिलक की पाषाण-मूर्ति है निःसंग

स्तब्ध जड़ीभूत...

देखता हूँ उसको परंतु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता

पाषाण-पीठिका हिलती-सी लगती

अरे, अरे यह क्या!!

कण-कण काँप रहे जिनमें-से झरते

नीले इलेक्ट्रान

सब ओर गिर रही हैं चिनगियाँ नीली

मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार।

मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,

आँखों में बिजली के फूल सुलगते।

इतने में यह क्या!!

भव्य ललाट की नासिका में से

बह रहा खून न जाने कब से

लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता

(खून के धब्बों से भरा अँगरखा)

मानो कि अतिशय चिंता के कारण

मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा

मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से।

हाय, हाय, पितः पितः ओ,

चिंता में इतने न उलझो

हम अभी जिंदा हैं जिंदा,

चिंता क्या है !!

मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठंडे

पैरों की छाती से बरबस चिपका

रुआँसा-सा होता

देह में तन गये करुणा के काँटे

छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे

गिरती हैं नीली

बिजली की चिनगियाँ

रक्त टपकता है हृदय में मेरे

आत्मा में बहता-सा लगता

खून का तालाब।

इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्

सिर में है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी !!

फिक्र जबरदस्त !!

विवेक चलाता तीखा-सा रंदा

चल रहा बसूला

छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई

भयानक जिद कोई जाग उठी मेरे भी अंदर

हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।

इतने में आसमान काँपा व धाँय-धाँय

बंदूक-धड़ाका

बिजली की रफ्तार पैरों में घूम गयी।

खोहों-सी गलियों के अँधेरे में एक ओर

मैं थक बैठ गया,

सोचने-विचारने।


अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से

रोने की पतली-सी आवाज

सूने में काँप रही काँप रही दूर तक

कराहों की लहरों में पाशव प्राकृत

वेदना भयानक थरथरा रही है।

मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न

कि देखता क्या हूँ -

सामने मेरे

सर्दी में बोरे को ओढ़कर

कोई एक अपने

हाथ-पैर समेटे

काँप रहा, हिल रहा - वह मर जायगा।

इतने में वह सिर खोलता है सहसा

बाल बिखरते

दीखते हैं कान कि

फिर मुँह खोलता है, वह कुछ

बुदबुदा रहा है,

किंतु मैं सुनता ही नहीं हूँ।

ध्यान से देखता हूँ - वह कोई परिचित

जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार

पर पाया नहीं था।

अरे हाँ, वह तो...

विचार उठते ही दब गये,

सोचने का साहस सब चला गया है।

वह मुख - अरे, वह मुख, वे गाँधी जी !!

इस तरह पंगु !!

आश्चर्य !!

नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल

रूप बदलकर करते हैं चुपचाप।

सुरागरसी-सी कुछ।

अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर

मैं अति दीन हो जाता हूँ पास कि

बिजली का झटका

कहता है - "भाग जा, हट जा

हम हैं गुजर गये जमाने के चेहरे

आगे तू बढ़ जा।"

किंतु मैं देखा किया उस मुख को।

गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,

शब्दों में गुरुता।


वे कह रहे हैं -

"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर

दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट

कोई भी मुरगा

यदि बाँग दे उठे जोरदार

बन जाये मसीहा"

वे कह रहे हैं -

मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण

गुण हैं,

जनता के गुणों से ही संभव

भावी का उद्भव...

गंभीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,

जाने क्या कह गये!!

मैं अति उद्विग्न!


एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर

मूर्ति की ठठरी।

नाक पर चश्मा, हाथ में डंडा,

कंधे पर बोरा, बाँह में बच्चा।

आश्चर्य ! अद्भुत ! यह शिशु कैसे !!

मुसकरा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब -

"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था।

सँभालना इसको, सुरक्षित रखना"


मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ पर

कहीं कोई नहीं है, कहीं कोई नहीं है :

और ज्यादा गहरा व और ज्यादा अकेला

अँधेरे का फैलाव!

बालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप,

छाती से कंधे से चिपका है नन्हा-सा आकाश

स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल

किंतु है भार का गंभीर अनुभव

भावी की गंध और दूरियाँ अँधेरी

आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं

चला जा रहा हूँ

घुसता ही जाता हूँ फासलों की खोहों तहों में।


सहसा रो उठा कंधे पर वह शिशु

अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित !!

पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,

उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,

गहरी है शिकायत,

क्रोध भयंकर।

मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले

हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।

मैं पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता,

समझाने के लिए तब गाता हूँ गाने,

अधभूली लोरी ही होठों से फूटती !

मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिश,

और-और चीखता है क्रोध से लगातार !!

गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।

किंतु, न जाने क्यों खुश बहुत हूँ।

जिसको न मैं जीवन में कर पाया,

वह कर रहा है।

मैं शिशु-पीठ को थपथपा रहा हूँ,

आत्मा है गीली।

पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।

डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में -

हृदय के थाले में रक्त का तालाब,

रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,

रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,

अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,

और ये संकल्प

चलते हैं साथ-साथ।

अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।


इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा

कंधे पर कुछ नहीं !!

वह शिशु

चला गया जाने कहाँ,

और अब उसके ही स्थान पर

मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे।

उन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण

कंधों पर, सिर पर, गालों पर, तन पर,

रास्ते पर, फैले हैं किरणों के कण-कण।

भई वाह, यह खूब !!


इतने गली एक आ गयी और मैं

दरवाजा खुला हुआ देखता।

जीना है अँधेरा।

कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!

मैं बढ़ रहा हूँ

कंधों पर फूलों के लंबे वे गुच्छे

क्या हुए, कहाँ गये?

कंधे क्यों वजन से दु:ख रहे सहसा।

ओ हो,

बंदूक आ गयी

वाह वा... !!

वजनदार रॉयफल

भई खूब !!

खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,

झाँकते हैं खिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे

फैली है बर्फीली साँस-सी वीरान,

तितर-बितर सब फैला है सामान।

बीच में कोई जमीन पर पसरा,

फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आखिर।

मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्या -

खून भरे बाल में उलझा है चेहरा,

भौहों के बीच में गोली का सूराख,

खून का परदा गालों पर फैला,

होठों पर सूखी है कत्थई धारा,

फूटा है चश्मा नाक है सीधी,

ओफ्फो !! एकांत-प्रिय यह मेरा

परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,

सचाई थी सिर्फ एक अहसास

वह कलाकार था

गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था

पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,

चलाता था अपना असंग अस्तित्व।

सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने

शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।

स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो -

हलचल करता था रह-रह दिल में

किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।

शून्य के जल में डूब गया नीरव

हो नहीं पाया उपयोग उसका।

किंतु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुजरा कि

संदेहास्पद समझा गया और

मारा गया वह बधिकों के हाथों।

मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अंतर

मुक्ति के यत्नों के साथ निरंतर

सबका था प्यारा।

अपने में द्युतिमान।

उनका यों वध हुआ,

मर गया एक युग,

मर गया एक जीवनादर्श !!

इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।

सवाल है - मैं क्या करता था अब तक,

भागता फिरता था सब ओर।

(फिजूल है इस वक़्त कोसना खुद को)

एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ

पाऊँ मैं नये-नये सहचर

सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!


जीने से उतरा

एकाएक विद्रूप रूपों से घिर गया सहसा

पकड़ मशीन-सी,

भयानक आकार घेरते हैं मुझको,

मैं आततायी-सत्ता के सम्मुख।


एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!

भयानक सनसनी।

पकड़कर कॉलर गला दबाया गया।

चाँटे से कनपटी टूटी कि अचानक

त्वचा उखड़ गयी गाल की पूरी।

कान में भर गयी

भयानक अनहद-नाद की भनभन।

आँखों में तैरीं

रक्तिम तितलियाँ, चिनगियाँ नीली।

सामने ऊगते-डूबते धुँधले

कुहरिल वर्तुल,

जिनका कि चक्रिल केंद्र ही फैलता जाता

उस फैलाव में दीखते मुझको

धँस रहे, गिर रहे बड़े-बड़े टॉवर

घुँघराला धूआँ, गेरूआ ज्वाला।

हृदय में भगदड़ -

सम्मुख दीखा

उजाड़ बंजर टीले पर सहसा

रो उठा कोई, रो रहा कोई

भागता कोई सहायता देने।

अंतर्तत्त्वों का पुनर्प्रबंध और पुनर्व्यवस्था

पुनर्गठन-सा होता जा रहा।


दृश्य ही बदला, चित्र बदल गया

जबरन ले जाया गया मैं गहरे

अँधियारे कमरे के स्याह सिफर में।

टूटे-से स्टूल में बिठाया गया हूँ।

शीश की हड्डी जा रही तोड़ी।

लोहे की कील पर बड़े हथौड़े

पड़ रहे लगातार।

शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला।

देखा जा रहा -

मस्तक-यंत्र में कौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा,

कौन-सी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,

कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरी,

कहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें

तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते,

कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय

कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!

भीतर कहीं पर गड़े हुए गहरे

तलघर अंदर

छिपे हुए प्रिंटिंग प्रेस को खोजो।

जहाँ कि चुपचाप खयालों के परचे

छपते रहते हैं, बाँटे जाते।

इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालो,

शायद, उसका ही नाम हो आस्था,

कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का

कहाँ है आत्मा?

(और, मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची

खिझलायी आवाज)

स्क्रीनिंग करो - मिस्टर गुप्ता,

क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली !!


चाबुक-चमकार

पीठ पर यद्यपि

उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं

पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,

देह में रेंग रही संवेदना की गरमीली कड़ुई धारा गहरी

झनझन थरथर तारों को उसके,

समेटकर वह सब

वेदना-विस्तार करके इकट्ठा

मेरा मन यह

जबरन उसकी छोटी-सी कड्ढी

गठान बाँधता सख्त व मजबूत

मानो कि पत्थर।

जोर लगाकर,

उसी गठान को हथेलियों से

करता है चूर-चूर,

धूल में बिखरा देता है उसको।

मन यह हटता है देह की हद से

जाता है कहीं पर अलग जगत् में।

विचित्र क्षण है,

सिर्फ है जादू,

मात्र मैं बिजली

यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ

दैत्य है आस-पास

फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ

गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में

किसी एक जेब में

वह जेब...

किसी एक फटे हुए मन की।


समस्वर, समताल,

सहानुभूति की सनसनी कोमल !!

हम कहाँ नहीं हैं

सभी जगह हम।

निजता हमारी ?

भीतर-भीतर बिजली के जीवित

तारों के जाले,

ज्वलंत तारों की भीषण गुत्थी,

बाहर-बाहर धूल-सी भूरी

जमीन की पपड़ी

अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत्,

उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह

बिलकुल निश्चल।

भीषण शक्ति को धारण करके

आत्मा का पोशाक दीन व मैला।

विचित्र रूपों को धारण करके

चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।


7


रिहा !!

छोड़ दिया गया मैं,

कई छाया-मुख अब करते हैं पीछा,

छायाकृतियाँ न छोड़ती हैं मुझको,

जहाँ-जहाँ गया वहाँ

भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद

मारते हैं संगीन -

दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी।

मुझे अब खोजने होंगे साथी -

काले गुलाब व स्याह सिवंती,

श्याम चमेली,

सँवलाये कमल जो खोहों के जल में

भूमि के भीतर पाताल-तल में

खिले हुए कबसे भेजते हैं संकेत

सुझाव-संदेश भेजते रहते !!

इतने में सहसा दूर क्षितिज पर

दीखते हैं मुझको

बिजली की नंगी लताओं से भर रहे

सफेद नीले मोतिया चंपई फूल गुलाबी

उठते हैं वहीं पर हाथ अकस्मात्

अग्नि के फूलों को समेटने लगते।

मैं उन्हें देखने लगता हूँ एकटक,

अचानक विचित्र स्फूर्ति से मैं भी

जमीन पर पड़े हुए चमकीले पत्थर

लगातार चुनकर

बिजली के फूल बनाने की कोशिश

करता हूँ। रश्मि-विकिरण -

मेरे भी प्रस्तर करते हैं प्रतिक्षण।

रेडियो-एक्टिव रत्न हैं वे भी।

बिजली के फूलों की भाँति ही

यत्न हैं वे भी,

किंतु, असंतोष मुझको है गहरा,

शब्दाभिव्यक्ति-अभाव का संकेत।

काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन

परंतु, ठंडा।

मेरे भी फूल हैं तेजस्क्रिय, पर

अतिशय शीतल।

मुझको तो बेचैन बिजली की नीली

ज्वलंत बाँहों में बाँहों को उलझा

करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला

आकाश-भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको

मेरे पास न रंग है बिजली का गौर कि

भीमाकार हूँ मेघ मैं काला

परंतु, मुझको है गंभीर आवेश

अथाह प्रेरणा-स्रोत का संयम।

अरे, इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा

काम नहीं चलेगा !!

क्या कहूँ,

मस्तक-कुंड में जलती

सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती -

मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।


अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होंगे।

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार

तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें

जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता

अरुण कमल एक

ले जाने उसको धँसना ही होगा

झील के हिम-शीत सुनील जल में

चाँद उग गया है

गलियों की आकाशी लंबी-सी चीर में

तिरछी है किरनों की मार

उस नीम पर

जिसके कि नीचे

मिट्टी के गोल चबूतरे पर, नीली

चाँदनी में कोई दिया सुनहला

जलता है मानो कि स्वप्न ही साक्षात्

अदृश्य साकार।

मकानों के बड़े-बड़े खंडहर जिनके कि सूने

मटियाले भागों में खिलती ही रहती

महकती रातरानी फूल-भरी जवानी में लज्जित

तारों की टपकती अच्छी न लगती।


भागता मैं दम छोड़

घूम गया कई मोड़,

ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर

बहस गरम है

दिमाग में जान है, दिलों में दम है

सत्य से सत्ता के युद्ध को रंग है,

पर कमज़ोरियाँ सब मेरे संग हैं,

पाता हूँ सहसा -

अँधेरे की सुरंग-गलियों में चुपचाप

चलते हैं लोग-बाग

दृढ़-पद गंभीर,

बालक युवागण

मंद-गति नीरव

किसी निज भीतरी बात में व्यस्त हैं,

कोई आग जल रही तो भी अंत:स्थ।


विचित्र अनुभव !!

जितना मैं लोगों की पाँतों को पार कर

बढ़ता हूँ आगे,

उतना ही पीछे मैं रहता हूँ अकेला,

पश्चात्-पद हूँ।

पर, एक रेला और

पीछे से चला और

अब मेरे साथ है।

आश्चर्य !! अद्भुत !!

लोगों की मुट्ठियाँ बँधी हैं।

अँगुली-संधि से फूट रहीं किरनें

लाल-लाल

यह क्या !!

मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे,

मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर,

बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह।

किंतु मैं अकेला।

बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।


गलियों के अँधेरे में मैं भाग रहा हूँ,

इतने में चुपचाप कोई एक

दे जाता पर्चा,

कोई गुप्त शक्ति

हृदय में करने-सी लगती है चर्चा !!

मैं बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ उसको !

आश्चर्य!

उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व

दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव

पीड़ाएँ जगमगा रही हैं।

यह सब क्या है !!


आसमान झाँकता है लकीरों के बीच-बीच

वाक्यों की पाँतों में आकाशगंगा-फैली

शब्दों के व्यूहों में ताराएँ चमकीं

तारक-दलों में भी खिलता है आँगन

जिसमें कि चंपा के फूल चमकते

शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी श्यामल खिलते हैं

चेहरे !!

चमकता है आशय मनोज्ञ मुखों से

पारिजात-पुष्प महकते।


पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में,

चक्रवात-गतियों में घूमता हूँ नभ पर,

जमीन पर एक साथ

सर्वत्र सचेत उपस्थित।

प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में,

प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर

सड़क पर खड़ा हूँ,

मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ !!


और तब दिक्काल-दूरियाँ

अपने ही देश के नक्शे-सी टँगी हुई

रँगी हुई लगतीं !!

स्वप्नों की कोमल किरनें कि मानो

घनीभूत संघनित द्युतिमान

शिलाओं में परिणत

ये दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ हैं

जिनसे की स्वप्नों की मूर्ति बनेगी

सस्मित सुखकर

जिसकी कि किरनें,

ब्रह्मांड-भर में नापेंगी सब कुछ!

सचमुच, मुझको तो जिंदगी-सरहद

सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती !!

मैं परिणत हूँ,

कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ

वर्तमान समाज चल नहीं सकता।

पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,

स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी

छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,

जन को।


8


एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!

नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है,

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,

हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी

गरमी का आवेग।

साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,

साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,

जन-मन उद्देश्य !!

पथरीले चेहरों के खाकी ये कसे ड्रेस

घूमते हैं यंत्रवत्,

वे पहचाने-से लगते हैं वाकई

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!


सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्

चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं

उनके खयाल से यह सब गप है

मात्र किंवदंती।

रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग

नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।

प्रश्न की उथली-सी पहचान

राह से अनजान

वाक् रुदंती।

चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।


भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये

समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थूल।

गढ़े जाते संवाद,

गढ़ी जाती समीक्षा,

गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।

बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,

किराये के विचारों का उद्भास।

बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।

नपुंसक श्रद्धा

सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।


धुएँ के जहरीले मेघों के नीचे ही हर बार

द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,

एक स्प्लिट सेकेंड में शत साक्षात्कार।

टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।

रक्त में बहती हैं शान की किरनें

विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।


राह के पत्थर-ढोकों के अंदर

पहाड़ों के झरने

तड़पने लग गये।

मिट्टी के लोंदे के भीतर

भक्ति की अग्नि का उद्रेक

भड़कने लग गया।

धूल के कण में

अनहद नाद का कंपन

खतरनाक !!

मकानों के छत से

गाडर कूद पड़े धम से।

घूम उठे खंभे

भयानक वेग से चल पड़े हवा में।

दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच

नाचता है हवा में

गगन में नाच रही कक्का की लाठी।

यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,

तेजी से लहराती घूमती है हवा में

सलेट पट्टी।

एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,

ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।

शून्याकाश में से होते हुए वे

अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार।

यह कथा नहीं है, यह सब सच है, हाँ भई !!

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!


किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया

कंडों का वर्तुल ज्वलंत मंडल।

स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही

ज्वालाएँ उठती हैं उससे,

और उस गोल-गोल ज्वलंत रेखा में रक्खा

लोहे का चक्का

चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल

फूलों-सी खिलतीं। कुछ बलवान् जन साँवले मुख के

चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन

लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी

घन मार घन मार,

उसी प्रकार अब

आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा

संकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत

ज्वलंत टायर !!

अब युग बदल गया है वाकई,

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।


गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,

जंगल जल रहे जिंदगी के अब

जिनके कि ज्वलंत-प्रकाशित भीषण

फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ

जिनके कि जल में

सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलंत अपने

बिंब फेंकतीं‍‍ !!

वेदना नदियाँ

जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से

मानो कि आँसू

पिताओं की चिंता का उद्विग्न रंग भी,

विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,

डूबा है जिनमें श्रमिक का संताप।

वह जल पीकर

मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वांतर,

विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,

मानो कि ज्वाला-पंखुरियों से घिरे हुए वे सब

अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!

द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।


...


एकाएक फिर स्वप्न भंग

बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।

मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।

पर उन दुखते हुए रंध्रों में गहरा

प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।

मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,

अर्थों की वेदना घिरती है मन में।

अजीब झमेला।

घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास

आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।

जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको

मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा

प्रेम कर लिया हो

जीवन भर के लिए !!

मानो कि उस क्षण

अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर

कस लिया था इस भाँति कि मुझको

उस स्वप्न-स्पर्श की, चुंबन की याद आ रही है,

याद आ रही है !!

अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?


कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,

गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर

क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?

हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी

जाग गयी क्यों कर ?


सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल

चुंबकीय आकर्षण।

प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,

मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन

अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,

प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ

झलकता साफ-साफ !

डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रंथों के लेखक

मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,

मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,

मन यह अंतरिक्ष-वायु में सिहरा।


उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।

एकाएक वह व्यक्ति

आँखों के सामने

गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में

चला जा रहा है।

वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।

धड़कता है दिल

कि पुकारने को खुलता है मुँह

कि अकस्मात् -

वह दिखा, वह दिखा

वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...

उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!


अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,

परम अभिव्यक्ति

मैं उसका शिष्य हूँ

वह मेरी गुरु है,

गुरु है !!

वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,

वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,

तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,

आखिरी बार ही।

पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल

वह फटेहाल रूप।

तडित्तरंगीय वही गतिमयता,

अत्यंत उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह

सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता

वही फटेहाल रूप !!

परम अभिव्यक्ति

लगातार घूमती है जग में

पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ

वह है।

इसीलिए मैं हर गली में

और हर सड़क पर

झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,

प्रत्येक गतिविधि

प्रत्येक चरित्र,

व हर एक आत्मा का इतिहास,

हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति

प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श

विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!

खोजता हूँ पठार... पहाड़... समुंदर

जहाँ मिल सके मुझे

मेरी वह खोयी हुई

परम अभिव्यक्ति अनिवार

आत्म-संभवा।


गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 में शिवपुर जिला मुरैना ग्वालियर में हुआ था उनके पिता का नाम माधवराव और माता का नाम पार्वती बाई था पिता थानेदार थे उनकी प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई उज्जैन के ही स्कूल में उन्होंने अध्यापक की नौकरी की बाद में राज नंद गांव के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए मुक्तिबोध ने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह किया परंतु पत्नी के साथ सदैव वैचारिक मतभेद रहा आर्थिक संकटों के रहते हुए भी वे सदैव अध्ययन शील रहे 1962 में उनकी अंतिम रचना भारत इतिहास और संस्कृति प्रकाशित होते ही उन्हें पक्षाघात हो गया 11सितंबर 1964 की रात में देहांत हो गया

गजानंद माधव मुक्तिबोध ने अनेक साहित्य की विधाओं में अपनी रचनाएं की उन्होंने लेखन कविता संग्रह कहानी संग्रह उपन्यास आलोचना आत्माख्यान इतिहास रचनावली आदि पर अपनी मजबूत पकड़ साबित किया प्रगतिशील कवि होते हुए भी अधिकांश कविताएं छायावादी शिल्प लिए हुए हैं कुछ कविताओं में कवि की निराशा और कुंठा अभिव्यक्त हुई है कवि पूंजीवादी व्यवस्था के विरोधी रहे समाजवाद पर जोर दिया कवि ने अपनी कविताओं में शोषित समाज के अनेक चित्र उकेरे तथा जनहित को अपनाया व्यंगात्मक तभी उनके कविता शैली में प्रमुख रहे उन्होंने वर्ग हीन समाज की स्थापना पर बल दिया

मुक्तिबोध के काव्य का कला पक्ष समृद्ध रहा बिंबात्मकता के कारण कुछ स्थानों पर कविता जटिल सी हो गई कविताओं में वे अनेक प्रकार की कल्पना चित्र तथा फेंटेसीओं को लेकर चलते हैं वैसे तो रचनाएं साहित्यिक हिंदी भाषा में ही की परंतु संस्कृत के तत्सम तथा अंग्रेजी उर्दू फारसी के शब्द भी प्रयोग हुए पारंपरिक व नवीन प्रतीकों का भरपूर उपयोग किया मुक्तिबोध ने अपने काव्य भाषा में उपमा मानवीकरण रूपक उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास आदि अलंकारों का वर्णन किया है

मुक्तिबोध द्वारा रचित कविता अंधेरे में भारतीय साहित्य की एक अद्वितीय कविता है यह कविता सृजनात्मकता का सबसे उन्नत शिखर है अंधेरे में कविता एक काल विशेष की आलोचना ही नहीं है अपितु अंतर्विरोध और खतरों का आख्यान भी है यह कविता आशंकाओं और जन आकांक्षाओं स्वप्न और संभावनाओं की एक विराट फेंटेसी है

प्रस्तुत काव्यांश में कवि एक रहस्यमय व्यक्ति का जिक्र करता है वह रहस्य में व्यक्ति एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो कभी अभिव्यक्त की ही नहीं गई कवि ज्ञान को तनाव का कारण मान रहा है क्योंकि वह रहस्यमय व्यक्ति को प्रकट कर रहा है कविता में सामाजिक व्यवस्था पर चोट है कि प्रतिभावान व्यक्ति व्यवस्था से दुखी हो जाता है फिर भी उसकी संभावनाएं कभी मरती नहीं है कविता की विशेषता है कि समाज में एक डर का माहौल दिखाया गया है तथा पूंजीवाद का विरोध हुआ है भाषा में चित्रात्मक विशेष रही है

मुक्तिबोध का काव्य शिल्प

मुक्तिबोध ऐसे समय के कवि रहे जिन्होंने छायावाद काल से कविता का सफर शुरू किया प्रगतिवाद प्रयोगवाद से होते हुए नई कविता के समय में भी अपनी रचनाएं दी इसीलिए उनकी काव्य भाषा और शिल्प एक प्रेरणा स्रोत है मुक्तिबोध की कविताओं में आजादी के बाद की भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था अन्याय अत्याचार और शोषण के विसंगति की अभिव्यक्ति है उनकी कविता में गहरी मानवीय संवेदना मिलती है उन्होंने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो जनमानस की समझ में आसानी से आ सके मुक्तिबोध अपनी कविता की भाषा को लेकर हमेशा सजग रहे हैं उनके अनुसार एक कवि श्रेष्ठ होता है जब वह भाषा का निर्माण भी करता है मुक्तिबोध की काव्य भाषा में शब्दावलिओं का मिश्रित रूप देखने को मिलता है उन्होंने काव्य भाषा में तत्सम तद्भव अरबी फारसी अंग्रेजी सभी भाषाओं का प्रयोग किया है उनके काव्य में विद्रोह की भाषा का भी समावेश है लोकोक्तियों का प्रयोग भी उनकी काव्य में हुआ गजानन माधव मुक्तिबोध ने मानव जीवन की जटिल संवेदना और उनके अंतर्द्वंदों की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए फैटेसियों का कलात्मक उपयोग किया है अपनी कविताओं को प्रभावशाली बनाने के लिए मुक्तिबोध ने छोटे-छोटे वाक्यांशों का प्रयोग किया है मुक्तिबोध की कविताएं छंद मुक्त ही रहे उन्होंने किसी भी बंधन में अपनी कविताओं को बांधने का प्रयास नहीं किया अलंकारों का प्रयोग मुक्तिबोध की कविताओं में मिलता है नवीन उपमानों का भी प्रयोग मिलता है

मुक्तिबोध की कविताओं में वैचारिक आधार

सामाजिक और राजनीतिक विचारों को गद्य के रूप में रखना बहुत आसान होता है परंतु मुक्तिबोध ने इन विचारों को व्यक्त करने के लिए कविता का कठिन माध्यम चुना मार्क्सवादी विचारधारा के मुक्तिबोध सुनहरे समाज का सपना जीवन भर सजोते रहे मुक्तिबोध एक ऐसे समय के कवि हैं जिस समय भारत में राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था आदि आजादी के बाद के भारत के लिए कारगर होनी शुरू हो गई थी पूंजीपति वर्ग अपने आप को आजाद भारत में मजबूत बनाने में लगा हुआ था आम जनता के बारे मे जिस तरह की सोच उस समय थी मुक्तिबोध उनसे ही आहत थे और अपने विचार उसी के विरोध में रखते थे मुक्तिबोध व्यक्ति को सामाजिक बंधन और परंपराओं के आगे विवश देखते थे कोई भी अपने आप को किसी विरोध में नहीं डालना चाहता ना ही किसी चुनौती का सामना करना चाहता है मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा बन जाता है कि वह किसी भी तरह के तर्क को करने के लायक ही नहीं रह जाता है समाज को सुधारने के लिए मुक्तिबोध सदैव कोशिश में लगे रहने को कहते चाहे जमीन में गड़ के भी क्यों ना कोशिश करनी पड़े कोशिश करते रहना है

15 views0 comments

Comments


bottom of page