मुझे स्कूल की प्रर्थना सभा की याद आई तो एक मंत्र याद हो आया और फिर कुछ विचार प्रवाहित हो गए। आप से साझा कर रही हूं।आग्रह है पढ़ें और प्रतिक्रिया अवश्य दें ।
लगभग सभी विद्यालयों में निम्नलिखित वैदिक मंत्र सुबह की प्रार्थना के वक्त पढ़ा जाता है। बच्चों को तो इस श्लोक का अर्थ शायद ही पता होता है कुछ बच्चे तो बस सामूहिक गान की तरह एक आवाज़ भर निकालकर साथ दे देते हैं क्योंकि वे सही तरीके से इसके शब्दों का भी उच्चारण नहीं जानते हैं
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह विर्यं करवावहे ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
एक बार कक्षा में पढ़ाते समय संस्कृत के शिक्षक ने बच्चे से पूछा कि सुबह-सुबह जो मंत्र तुम बोलते हो वह क्या तुम सुना सकते हो? बच्चे ने कोशिश की परन्तु उसे सही सही शब्दों का उच्चारण पता हीं नहीं था । बच्चे को जरा भी श्लोक याद नहीं था जबकि वह इस मंत्र को आठ सालों से हर दिन प्रार्थना के समय सुन रहा था और बोल रहा था। ऐसा इसलिए कि बच्चे दैनिक नियम जानकर इसे बुदबुदा भर देते हैं।
यह श्लोक हो या कोई और श्लोक हो उनको बोलने समझने में अगर बच्चे में कमी है तो उसका दोष बच्चे पर ही दिया जाएगा ऐसा बिल्कुल भी नहीं । शिक्षक को असल दोषी कहें तो यह भी पुरी तरह सत्य नहीं हैं, क्यों कि उनकी भी कुछ सीमाएं है।वे अपने स्वार्थ में मग्न रहकर बच्चों के चरित्र निर्माण पर ध्यान हीं नहीं देते।शिक्षा के गूढ़ अर्थ को समझ कर अगर शिक्षक अपनी आत्मा में अपने अध्ययन के प्रति ज़िम्मेदारी को समझें और विद्यार्थी में उस ज्ञान का संचार करें तथा विद्यार्थियों को शिक्षा की वास्तविकता समझने में सहायता करें तो दुनिया कितनी अच्छी हो जाएगी । मंत्र की जहां तक बात है तो उसका मनन चिंतन व अपने जीवन में कैसे समावेश करना है यह समझ आए तो शायद शिक्षा का स्तर कुछ तो सुधरेगा।
शिक्षक हीं बस बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण करते हैं यह कहना तो सर्वथा गलत है । अभिभावकों का भी बहुत बड़ा योगदान होता है बच्चे के व्यक्तित्व के निर्माण में और इस बात से हम इंकार कैसे कर सकते हैं ।
शब्द दर शब्द श्लोक का अर्थ इस प्रकार है
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह विर्यं करवावहे ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
सह - हम या एक साथ...
नाववतु - हमारी रक्षा करें
भुनक्तु- हमारा पोषण करें
विर्यं करवावहे - हमारी क्षमता में वृद्धि हो..
तेजस्वि+नाव+ अधीतम +अस्तु- प्रखर विद्वान हम अपनी अध्ययन से बनें
मा - न ऐसा हो
विद्विषावहै - कि हम एक दूसरे से कुतर्क करें
अर्थात परमात्मा शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, दोनों को साथ-साथ पोषण करें हमारी दोनों की क्षमता में वृद्धि हो..
हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।
उपर्युक्त वैदिक श्लोक का पाठ अध्ययन शुरू करने के ठीक पहले शिक्षक और विद्यार्थी द्वारा किया जाता रहा है और आज भी किया जाता है ।
परंतु यह श्लोक आदि काल अर्थात वैदिक युग के वक्त का है... उस वक्त एक गुरु मुश्किल से 3, 4, 5 या 10 तक की संख्या में बच्चों को पढ़ाते होंगे। आज एक - एक कक्षा में 35 से 50 बच्चे बैठते हैं और एक एक विद्यालय में कई कई हजार बच्चे पढ़ते हैं।
माता पिता तब बालकों को गुरुकुल में पढ़ाते थे और अपने साथ घर पर शिक्षा ग्रहण करने तक रखते नहीं थे ।अब तो पारिवारिक माहौल भी अलग है ।माता पिता के साथ हीं बच्चों को जीवन जीने का तरीका पता चलता है ।तो क्या इस परिस्थिति में उस परमपिता परमेश्वर से आशीर्वाद मांगने की आवश्यकता और नहीं बढ़ जाती? बदले हालात में एक शिक्षक के बस में नहीं है कि वह एक-एक बच्चों का खास ध्यान रख पाये। माता पिता के पास भी जीवन की आपाधापी में समय कम पड़ जाता ,तो वह ईश्वर ही है जो शिक्षकों का भी ध्यान रख सकता है और विद्यार्थियों का भी और माता पिता का भी ।इसीलिए इस श्लोक को शिक्षक भी समझें और बच्चों को भी समझाएं तथा माता पिता भी समझें और पूरे मन से आत्मा से इसका पाठ करें ताकि जितना हम कर सकते हैं वह तो करना ही है परंतु इस बदलते परिवेश में ईश्वर हमारा साथ दें हमें आगे बढ़ाएं।
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