खुरदरे पैर / नागार्जुन
खुब गए
दूधिया निगाहों में
फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर
धँस गए
कुसुम-कोमल मन में
गुट्ठल घट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर
दे रहे थे गति
रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को
चला रहे थे
एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घण्टों के हिसाब से ढोये जा रहे थे !
देर तक टकराए
उस दिन इन आँखों से वे पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ
खुब गईं दूधिया निगाहों में
धँस गईं कुसुम-कोमल मन में
१९६१ में लिखी गई
शासन की बंदूक / नागार्जुन
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
रचनाकाल: 1966
कालिदास / नागार्जुन
नागार्जुन »
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!
शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ' चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
कालिदास! सच-सच बतलाना!
काव्य संवेदना / रचना विधान
काव्य संवेदना की दृष्टि से नागार्जुन की कविताएं बहुत ही उत्कृष्ट रही हैं संवेदना के विभिन्न रूपों का समावेश रहा है संवेदना की प्रचुरता जीवन के अनेक पक्षों के साथ नागार्जुन ने अपनी कविताओं में प्रस्तुत किया लगभग जीवन की सभी भावनाएं कविताओं के माध्यम से व्यक्त की गई
नागार्जुन की कविताओं की रचना की विशेषताओं में एक-एक कर निम्नलिखित विचार बिंदुओं पर चर्चा इस प्रकार की जा सकती है
१) भाषा-- नागार्जुन की भाषा शैली मिश्रित रही है इसमें बोलचाल के शब्द तत्सम संस्कृत निष्ठ शब्द लोक भाषा के शब्दों के साथ साथ अंग्रेजी के शब्द भी प्रयोग किए गए हैं नागार्जुन स्वयं लिखते हैं आंचलिक बोलियों का मिक्सर कानों की इन कटोरिया में भरकर लौटा सुबह-सुबह
प्रायः तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है छायावाद की भाषा का भी असर समाहित है
जी हां लिख रहा हूं
बहुत कुछ बहोत बहोत
उर्दू के प्रचलित शब्दों से भी अछूती नहीं है नागार्जुन की कविताएं
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
नागार्जुन अपने आसपास के रोजमर्रा के वातावरण व माहौल से बिंबों और शब्दों को अपनी कविता में रचते थे इन्हीं कारणों से नागार्जुन की कविताएं साधारण आम जनमानस के हृदय से जुड़ाव करती है वह आस-पास के लोगों की भाषा में उनके जीवन के प्रसंगों को कविता में रखते थे
बड़ा मुखयल मालूम पड़ता है जमूरा
खा रे खा तेरे खातिर
बाबा आज खीर पार्टी दे रहे हैं
काव्यांश नेवला कविता से उद्धृत है
२) नाटकीयता -- अक्सर किसी भी कविता में कविता पक्ष या गीतात्मक पक्ष मुखर होता है यह नाटकीयत्ता प्रचुर होती है नागार्जुन की कविताओं में नाटकीयता प्रचुरता मिलती है जहां एक और हम यह पातें हैं कि छायावाद की कविताओं में गीतात्मकता मुखर होती है तो हम वही नागार्जुन की कविताओं में नाटकीयता को मुखर होते पाते हैं स्थितियों को कभी इस तरह प्रस्तुत कर गए जैसे कि वह स्थिति सामने ही दिखाई पड़ रही हो
यही धुआ में ढूंढ रहा था
यही आग में खोज रहा था
यही गंध थी मुझे चाहिए
बारूदी छर्रे की खुशबू
यह पंक्तियां भोजपुर कविता से ली गई है इस कविता के अलावा अनेक अन्य कविताओं में भी कवि के नाटक किया था रचने का गुण मिलता है उदाहरण के लिए मास्टर प्रेत का बयान बच्चा चिनार आदि स्पष्टवादिता से कविता की रचना करने के कारण कई बार नागार्जुन की कविताएं अलंकारों के विभिन्न लगती हैं और सपाट दिखती है कविताएं कई बार कवि ने इस प्रकार रचा कि पाठक के मन में सवाल छोड़ गया जिसका उत्तर उसे स्वयं पता करना है जहां पाठक स्वयं अपने उत्तर से कविता को पूरा करता है तो नागार्जुन की कविताओं में नाटक और उभर कर सामने आता है
३) व्यंग्य-- नागार्जुन श्रेष्ठ व्यंग कार कवि रहे हैं असल में वे व्यंग शिरोमणि है एक उदाहरण से उनके व्यंग पर चर्चा शुरू करनी चाहिए
श्वेत श्याम रत्ना अखियां निहार के
सिंडिकेट प्रभुओं की पग धूर झाड़ के
लौटे है दिल्ली से कल टिकट मार के
खिले हैं दांत जो दाने अनार के
आए दिन बहार के
नागार्जुन व्यंग लेखन में कबीर के आसपास नजर आते हैं भारतेंदु कालीन व्यंग लेखन से भी उनकी तुलना की जा सकती है मौजूदा व्यवस्था तथा राजनीति पर कवि ने व्यंग से गहरा चोट किया है कई बार तो कवी ने अपने आप से व्यंग्य किया है
प्रस्तुत काव्यांश आए दिन बिहार के कविता से उद्धृत है यहां राजनेता दिल्ली से सांसद चुनाव के टिकट प्राप्त करने में सफल होकर लौटे हैं उसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है जैसे प्रेमी प्रियदर्शन का सुख बसंत में लेकर लौटा है यहां कभी पारंपरिक श्रृंगार के शब्दों का और मुहावरों का प्रयोग करते हैं व्यंग को और अधिक चोटिला बनाने के लिए नागार्जुन अतिरंजित करके प्रस्तुत करते हैं व्यंग्य कविताओं के कुछ उदाहरण में योगीराज अनुदान सौदा कंचन मृग आदि है
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि नागार्जुन की काव्य को किसी एक निश्चित खाचे में नहीं बांधा जा सकता है उनकी कविताएं यथार्थ का चित्रण है नागार्जुन की कविताओं में जहां गंभीरता है वही हास्य व्यंग भी है नागार्जुन श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं
जन कवि के रूप में
नागार्जुन प्रगतिवादी कविता के प्रमुख स्तंभ है नागार्जुन की बहुत लंबी काव्य यात्रा रही है और उनका काव्य संसार भी विविधताओं से भरा हुआ है जनता से जुड़े हर समस्याओं सवालों पर अपना मत व्यक्त करके अपनी आवाज उठा कर जनता के साथ खड़े होकर नागार्जुन ने जन कवि की उपाधि पाई दलितों और और उत्पीड़ित जनता के साथ सदैव खड़े रहे नागार्जुन अपने आप को जनता से अलग कभी मानते ही नहीं थे वे खुद को भी एक शोषित पीड़ित जनता ही कहते थे सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था जो भी जनता के लिए दुखदाई हो शोषक हो बंधन हो उसके खिलाफ दे अपनी कविता को आवाज देते थे किसी भी प्रकार की व्यवस्था का वह अंध समर्थन नहीं करते थे इसीलिए उनकी कविता को विपक्ष की कविता भी कहा जाता है उनकी कविता सदैव सत्ता से टकराती रहे उन्होंने अपने लिए बहुत से खतरे उत्पन्न किए राजनीति और पूंजीवादी व्यवस्था कविता के बहती गंगा जल को रोक दें यह संभव नहीं ऐसा नागार्जुन का मानना था गांधीवादी दृष्टिकोण में भी उन्हें अगर लगता कि यह सिद्धांत जनता के लिए सही नहीं है तो वे उसके विरोध में भी आवाज उठाते थे जिस समय जो भी सत्ता में आया उन्होंने उनके खिलाफ आवाज उठाई चाहे वह नेहरू हों या शास्त्री जी हों आपातकाल के दौरान नागार्जुन की कविताएं और जोरदार आवाज में आंदोलन करने लगी चाहे उन्हें जेल भी क्यों ना जाना पड़ानागार्जुन की दूरदृष्टि पहले ही आने वाली राजनीतिक समीकरणों को भाग जाती थी और उनकी कविताएं जनता को पहले ही उसे आगाह कर देती थी जैसे कि कांग्रेस की पराजय के बाद बनी जनता पार्टी के लिए उन्होंने खिचड़ी विप्लव की संज्ञा दी कहा कि राजनेता एक दूसरे का गुह्यांग सूंघ रहे हैं और उनकी आश्रम का है आने वाले समय में सत्य सिद्ध हुई नागार्जुन बहुत ही प्रबल आघात करने वाले व्यंग कार थे इनके आगे अच्छे से अच्छे लोग घुटने टेक देते थे जनता की विचारधारा के साथ सदैव चलने के कारण कई बार उन्हें साथी साहित्यकारों से भी आलोचना सुनना पड़ता था सट्टा के विरुद्ध क्रांति प्रति रहने के बावजूद भी लोकतंत्रिक व्यवस्था पर नागार्जुन को पूरा यकीन था जयति नखरंजीनी नामक कविता में उनका व्यंग फैशन की मारी युवतियों पर था जो हाथों में दाग लगने के डर से मतदान नहीं करतीजनता के लिए समर्पित रहने के कारण उनकी कविता की भाषा भी आम बोलचाल की भाषा ही थी सीधे-साधे बोलचाल की भाषा में ही वे व्यंग की तलवार को धारदार बना देते थे वे लोकगीतों की शैली का भी प्रयोग करते थे स्वतंत्र भारत के ऐसे जनकवि थे जिन्हें आधुनिक कबीर की संज्ञा दी गई है
काव्य भाषा और शिल्प
नागार्जुन एक ऐसे समय के कवि हैं जिस समय समाज अपने भ्रष्टाचार और अनिल कुरूप अदाओं से युक्त हो चुका था इसीलिए कविता के क्षेत्र में भी कथ्य और शिल्प की कोमलता लगभग कम हो गई थी ऐसे समाज में नागार्जुन ने यथार्थ को चित्रित करने का और बुराई के लिए आवाज बुलंद करने का बीड़ा उठा लिया था इसीलिए उनकी कविताओं में भाषा और शब्द बड़े हैं स्पष्ट नजर आते हैं नागार्जुन ने भाषा का एक विशाल भंडार प्रस्तुत किया उनकी कविताओं में भावों की विविधता देखने को मिली उनकी भाषा बहुत ही सजीव रही उन्होंने काव्य के नए-नए प्रयोग किए नए-नए छंदों में और अनेक विधियों में प्रयोग को प्रस्तुत किया क्योंकि वह जन कवि थे इसीलिए प्रताड़ित वर्ग की संवेदना उनकी कविताओं में अहम रही उनका पूरा ध्यान कविता की विषय वस्तु पर होता था कविता के तकनीक और छंदों के गणित पर आवश्यकता से अधिक ध्यान नहीं देते थे नागार्जुन कई भाषाओं के ज्ञानी थे इसीलिए उनकी काव्य में भाषागत देखने को मिलती है नागार्जुन संस्कृत के पंडित थे बाबा को अपने गांव से और गांव के परिवेश से बेहद लगाव था इसीलिए उनकी कविताओं में ग्रामीण लोक शब्दों मैथिली भोजपुरी जैसी बोलियों का प्रयोग भी बहुत देखने को मिलता है
शैली -नागार्जुन की काव्य शैली को दो रूपों में बांटा जा सकता है पहला रूप अभिजात शैली जिसमें कवि पारंपरिक कविता और पौराणिक आख्यानों को प्रस्तुत करते थे और दूसरी शैली जनवादी शैली जिसमें कवि मुक्त रूप से जनता की दुख तकलीफों को लिखते थे निजी तौर पर वे जनवादी शैली के ही कवि रहे इसीलिए उन्हें कबीर की परंपरा का कवि भी कहा जाता है उदाहरण के लिए "खिचड़ी विप्लव देखा हमने" "चंदू मैंने सपना देखा" जैसी कविताओं में देखा जा सकता है नागार्जुन लोक जीवन की अभिव्यक्ति के लिए ध्वनि अर्थ व्यंजक शब्दों की मदद लेते हैं जैसे "भूस का पुतला" "दप दप उजाला" उन्होंने लाक्षणिक शैली का भी इस्तेमाल किया उनकी कविताओं में व्यंग प्रमुख रहा उनके काव्य में पर्यायवाची शब्द की बुनता देखी जा सकती है
बाबा की कविताओं में पुनरुक्ति के दो रूप देखे जाते हैं पहला संचयनमूलक रूप उदाहरण "वह कौन था" कविता इसका प्रयोग अपनी बात पर जोर देने के लिए किया गया कविता के प्रारंभ से लेकर अंतिम पंक्ति तक कवि ने "चंदू मैंने सपना देखा की" आवृत्ति की
व्यवधानमुलक रूप "ऐसा क्या अब फिर फिर होगा" में देखा जा सकता है इसमें कवि के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों से जुड़कर भाव उत्पन्न होता है
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