(1)मगध के लोग
मृतकों की हड्डियां चुन रहे हैं
कौन-सी अशोक की हैं?
और चन्द्रगुप्त की?
नहीं, नहीं
ये बिम्बिसार की नहीं हो सकतीं
अजातशत्रु की हैं,
कहते हैं मगध के लोग
और आँसू
बहाते हैं
स्वाभाविक है
जिसने किसी को जीवित देखा हो
वही उसे
मृत देखता है
जिसने जीवित नहीं देखा
मृत क्या देखेगा?
कल की बात है –
मगधवासियों ने
अशोक को देखा था
कलिंग को जाते
कलिंग से आते
चन्द्रगुप्त को तक्षशिला की ओर घोड़ा दौड़ाते
आँसू बहाते
बिम्बिसार को
अजातशत्रु को
भुजा थपथपाते
मगध के लोगों ने
देखा था
और वे भूल नहीं पाये हैं
कि उन्होंने उन्हें
देखा था
जो अब
ढ़ूँढ़ने पर भी
दिखाई नहीं पड़ते
श्रीकांत वर्मा जी सांसद रह चुके थे इसीलिए सत्ता के गलियारे से उनका आना जाना होता था और यही सकता जिस का प्रतीक है मगध राजनीति के सच और राजनीति के झूठ से वह भली प्रकार वाकिफ थे मगध के माध्यम से उन्होंने सारी व्यवस्था का असली रूप दिखाने की कोशिश की जितने भी संशय अनिश्चितता छल और षडयंत्र के जाल हैं उन्होंने मगध के माध्यम से उसे चित्रित करने की कोशिश की चुकी श्रीकांत वर्मा स्वयं राजनीति से संबंध रखते थे इसीलिए उनकी कविताएं स्वयं उनके ऊपर भी लागू होती थी मगध के लोग कविता में उन्होंने इतिहास के बड़े-बड़े नामों को लिया है इन पात्रों के सहारे कवि ने अपने शब्दों से खूब जौहर दिखाया है और एक अद्भुत रचना कर डाली मगध के लोग ऐसी ही एक उनकी कृति है मगध के लोग कविता में कवि सुदूर अतीत की यात्रा करता है परंतु उसके सारे साक्ष्य वर्तमान में मौजूद है मगध के लोग कविताएं में कवि बड़े-बड़े ऐतिहासिक नामों को तो लेता है लेकिन सभी नामों में आम आदमी की उपस्थिति है एक ऐसा आदमी जो किसी भी तरह के फैसले नहीं ले सकता किसी भी तरह की सभा नहीं भुला सकता वह सिर्फ सत्ता के लिए गए फैसले के सामने अपना सिर हामी में हिला देता है मगध के लोग कविता में सभी चित्र कहते हैं की इतिहास के बड़े-बड़े नाम इतिहास के बड़े-बड़े साम्राज्य मिट्टी में मिल जाते हैं परंतु जो जीवित रहता है वह है एक आम इंसान मगध के लोग कविता एक द्वंद है यह द्वंद है जीवन और मृत्यु के बीच यह द्वंद है अतीत और वर्तमान के बीच यह द्वंद है सत्ता की ताकत और आम जनता के बीच
(2)तीसरा रास्ता
श्रीकांत वर्मा
मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे
जो थे
वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण
इस लायक
नहीं रहे
कि उन्हें हम
मगध का शासक कह सकें
लगभग यही शोर है
अवंती में
यही कोसल में
यही
विदर्भ में
कि शासक नहीं
रहे
जो थे
उन्हें मदिरा, प्रमाद और आलस्य ने
इस
लायक नहीं
रखा
कि उन्हें हम अपना शासक कह सकें
तब हम क्या करें?
शासक नहीं होंगे
तो कानून नहीं होगा
कानून नहीं होगा
तो व्यवस्था नहीं होगी
व्यवस्था नहीं होगी
तो धर्म नहीं होगा
धर्म नहीं होगा
तो समाज नहीं होगा
समाज नहीं होगा
तो व्यक्ति नहीं होगा
व्यक्ति नहीं होगा
तो हम नहीं होंगे
हम क्या करें?
कानून को तोड़ दें?
धर्म को छोड़ दें?
व्यवस्था को भंग करें?
मित्रो-
दो ही
रास्ते हैं :
दुर्नीति पर चलें
नीति पर बहस
बनाए रखें
दुराचरण करें
सदाचार की
चर्चा चलाए रखें
असत्य कहें
असत्य करें
असत्य जिएँ
सत्य के लिए
मर-मिटने की आन नहीं छोड़ें
अंत में,
प्राण तो
सभी छोड़ते हैं
व्यर्थ के लिए
हम
प्राण नहीं छोड़ें
मित्रो,
तीसरा रास्ता भी
है -
मगर वह
मगध,
अवन्ती
कोसल
या
विदर्भ
होकर नहीं
जाता।
प्रस्तुत काव्यांश में कभी राजनीति व सत्ता के खेल से दुखी नजर आते हैं सत्ता से विक्षुब्ध होकर कवि कहते हैं कि अब दो ही रास्ते हैं कभी कहते हैं कि नीति बस अब कहने की बात है चलना तो दुर्नीति पर होता है सदाचार पर बहस ही की जा सकती है क्योंकि आचरण तो बुरे ही सबके होते हैं बड़ी-बड़ी बातें की जाती है कि सत्य के आन के लिए मर मिटेंगे परंतु वास्तविकता में असत्य को ही जिया जाता है अंतिम पंक्तियों में कभी कहते हैं कि स्वयं को सर्वोपरि रखकर बस प्राण दे देना एक छलावा भर सकता की चाल में शामिल है
कविता की विशेषता है कि कविता में सत्ता पर जोरदार व्यंग किया गया है सत्ताधारी के दोहरे व्यक्तित्व को चित्रित किया गया है गद्य के रूप में रचना की गई है और नए का ध्यान रखा गया है कविता शांत गति से आगे बढ़ती है आवेग ना के बराबर है।
(3)बुढा पुल
मैं हूं इस नदी का बूढ़ा पुल
मुझ में से हहराता
गुजर गया कितना जल
लेकिन मैं माथे पर यात्राएं बोझे इस
रेती में गड़ा रहा
मुझ पर से घर घर घर
गुजर गए कितने रथ
लेकिन मैं पानी के पहियों की
ध्वनि सुनता खड़ा रहा
डूब गई संध्याएं अस्त हुआ इंद्रधनुष
लेकिन मैं
पत्थर का शप्त धनुष
मुझ में से जल्द अहरह अनचाहे अनजाने
तीरो साथ छूट रहा
आह जब कभी आधी रात में
भीगे सन्नाटे में
मैं चीखा अथवा सिटी मारी गई
आवाजें रुग्ण और परनुचे पखेरू सी
उड़ी
और पास किसी झाड़ी में अरझ गई
इस जल के अंदर भी कोई बूढ़ा पुल है
हिलता है कांपता है और झटपटाता है
आह वही मेरी
व्यथा जानता है
आह यह अकेलापन
सह्य नहीं नदियों का सन्नाटा
मिलनोन्मुख यात्राएं
संगम की ओर
दौड़ रही नदी
सह्य नहीं क्षितिजो तक जाते वे पक्षी दल
दूर कहीं डूब रही पगध्वनियां
अस्त हो रही नावें
गुजर रहे वे बादल
सह्य नहीं
आह मुझे ढाह दो
ताकि
इन प्रवाहों में मैं अनंत बहता जाऊं
और अगर अटकू तो
पानी में डूबे मंदिर की शोभा बनूं
अब मुझे ढाह दो
और नए पुल रचो
जो बूढ़े होने तक
स्थिरता की होड़ करें पानी से खेलें
भाग रही नदियों से
कहें
नदी रुक जाओ
वापस आ जाओ
और अट्टहास करें रातों को चौंके
आह मुझे ढाह दो
मैं हूं इस नदीया का बूढ़ा पुल
कब तक अपनी जड़ता बोहूं
मुझको भी यात्रा में परिणित कर दो
श्रीकांत वर्मा जी का जन्म 18 सितंबर 1931 को बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हुआ राजनीति में भी उनकी सक्रियता रही राज्यसभा के सदस्य भी रहे उनकी प्रारंभिक शिक्षा बिलासपुर तथा रायपुर में हुई नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नाकोत्तर किया लगभग एक दशक तक विभिन्न पत्रकार के रूप में कार्य किया वह गीतकार कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं मगध काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए वह 50 के दशक में उभरने वाले नई कविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में से थे 25 मई 1986 को उनका देहावसान हुआ
श्रीकांत वर्मा जी ने काव्य कहानी संग्रह उपन्यास आलोचना यात्रा वृतांत साक्षात्कार आदि साहित्यिक विधाओं पर अपनी पकड़ बखूबी साबित की उन्होंने मुक्तिबोध के काव्य संग्रह चांद का मुंह टेढ़ा है की कविताओं का संकलन भी किया उन्हें अनेक पुरस्कारों और सामानों से नवाजा गया
श्रीकांत वर्मा जी नई कविता के महत्वपूर्ण कवि थे परंतु अतीत की प्रचलित बिंदु बिंबो चित्रण इतिहास के पात्रों आदि के माध्यम से आधुनिक तथ्यों को उजागर किए श्रीकांत वर्मा जी की कविताएं तीनों कालों को एक साथ प्रकट करती हैं अतीत वर्तमान और भविष्य तीनों को जोड़ती है आज के आधुनिक युग के लिए उनकी कविताओं से बहुत सीख मिलती है श्रीकांत वर्मा जी ने आधुनिक हिंदी भाषा का प्रयोग अपने काव्य में किया
तीसरा रास्ता कविता श्रीकांत वर्मा जी के काव्य मगध से लिया गया है स्वयं सत्ता के गलियारों से संबंध रखते थे उन्हें सत्ता और जनता के बहुत से जटिल संबंधों का सही ज्ञान प्राप्त हुआ था कविताओं में उन्होंने उन्हें द्वंद बेबसी जटिलता और आम असहाय जनता की पीड़ा का चित्रण किया है
श्रीकांत वर्मा के काव्य की प्रमुख विशेषताएं
श्रीकांत वर्मा जी जहां एक और पारंपरिक छंदों में अपनी कविता लिखते तो वहीं दूसरी ओर वे पारंपरिक शब्दों की सीमा को तोड़ कविता को दानों की शक्ल में बिखेर देते श्रीकांत वर्मा जी छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और कवि सुमित्रानंदन पंत जी से बहुत प्रभावित रहे श्रीकांत वर्मा जी के काव्य में कुछ नया करने की छटपटाहट अन्याय अत्याचार और बंदिशों के प्रति छटपटाहट रही हमेशा उनकी कविताओं में एक तलाश दिखा और युवावस्था की प्रखरता भी उनकी कविता में रही श्रीकांत वर्मा जी की कविताओं की भाषा बहुत ही धारदार होती थी और उनकी कविताएं भूमि से जुड़ी हुई थी श्रीकांत वर्मा वर्मा जी ने कविताओं को महानगरों के दृश्य दिया महानगर जहां निराशाऐं थे आत्मघात था उन्होंने कविताओं को बीसवीं शताब्दी की कविता में बदल दिया उन्होंने जीवन के दुख दर्द और मानवीय संवेदनाओं को उजागर किया लीक से हटकर रचनाएं करने के कारण वह विवादास्पद व्यक्ति बन चुके थे
श्रीकांत वर्मा के काव्य में इतिहास और वर्तमान में द्वंद परिलक्षित होता है
परिवर्तन संसार का नियम है समय के साथ संसार में परिवर्तन होते ही रहते हैं इसी तरह साहित्य में भी समय के साथ साथ परिवर्तन होता ही रहता है
हम अपने बीते समय को कभी भूल नहीं सकते बीते समय से हमेशा हमें सीख मिलती है साहित्यकार बीते समय को मौजूदा समय के साथ मिलाकर ही बहुत से साहित्य की रचना करते हैं
श्रीकांत वर्मा ऐसे ही कवियों में से एक थे जिन्होंने भूत और भविष्य दोनों को मिलाकर अपनी कविताओं को एक नया नया जमीन दिया उदाहरण के लिए उनके दो काव्य संग्रह जलसाघर कथा गरुड़ किसने देखा है हैं श्रीकांत वर्मा की कविता दें जहां एक और पूरी दुनिया की सैर हो जाती है वही नामी-गिरामी इतिहास पुरुषों का भी वर्णन मिलता है इतिहास उन्होंने तो अपनी कविताओं में विश्व के भूगोल का भी चित्रण किया हुआ है
श्रीकांत वर्मा जी अपनी कविताओं में अतीत के कुछ प्रचलित निंबू स्मृति हूं और कुछ महत्वपूर्ण चित्रों को वर्कर ऐतिहासिक पात्रों को याद करते हुए आधुनिक समय और समाज को एक नया सीख देने की कोशिश करते हैं उदाहरण है उनकी कुछ कविताएं मगध नालंदा काशी कपिलवस्तु उज्जैनी मिथिला वैशाली पाटलिपुत्र हस्तिनापुर आदि
न्यायालय बंद हो चुके हैं अर्जियां हवा में
उड़ रही है
कोई अपील नहीं
कोई कानून नहीं
कुहरे में डूब गई है प्रत्याशाएं
धूल में पड़े हैं
कुछ शब्द
जनता थक कर सो गई है
कुल मिला कर
श्रीकांत वर्मा जी ने आधुनिक समय में पराजित मानव व आधुनिकता की त्रासदी भारतीय समाज की विसंगतियों आदि को अतीत के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है प्रकाश श्रीकांत वर्मा जी की कविताएं अतीत वर्तमान और भविष्य तीनों को जोड़ती हैं
श्रीकांत वर्मा के काव्य में मोहभंग
श्रीकांत वर्मा जी ने काव्य में राजनीति से जनता का मोहभंग के पक्ष को सबसे अधिक उजागर किया है उन्होंने जहां एक और राजनीति के सकारात्मक पक्ष को रखा तो वहीं उसके नकारात्मक पक्ष को भी दिखाया है उनके अनुसार राजनीति से जितनी भी आकांक्षाएं जनता को थी वह पूरी नहीं होती है श्रीकांत वर्मा जी ने आजादी के बाद जो एक अच्छे समाज सपना देखा गया था वह सपना इतना पूरा नहीं हुआ या उन सपनों का किस प्रकार अधु पतन हो गया और भी बहुत कुछ लिखा है
श्रीकांत वर्मा जी के अनुसार आजादी के बाद के भारत में कवियों कलाकारों आदि का समाज में स्थान नीचे रह गया और संपत्ति सेना मंत्री परिषद आदि जरूरत बन गई राजनीति अब बस चुनाव जीतना ही रह गया है और उस चुनाव जीतने के लिए पैसा इकट्ठा करते रहना ही मूल उद्देश्य है
श्रीकांत वर्मा जी ने राजनीति और समाज की एक भारी विडंबना को अपनी कविताओं मेंचित्रित किया कि जब तक राजनेता को जनता की या किसी अन्य की चुनाव जीतने के लिए जरूरत पड़ती है तब तक वह उसे महत्व देते हैं उसी प्रकार समाज में भी हमें जिस व्यक्ति से जब जरूरत पड़ती है हम उस व्यक्ति को महत्व देते हैं जरूरत पूरा होते हैं उन्हें भुला दिया जाता है
श्रीकांत वर्मा जी ने राजनेताओं को आगाह किया कि जनता को जहां तुम सुनने समझते हो यह वही सुनने हैं जिसके कारण तुम नेता बनते हो अगर यह सुनने हटा दिया जाए तो फिर तुम भी ठूंठ बनकर रह जाओगे
श्रीकांत वर्मा जी के अनुसार एक समय था जब राजनीति सदाचार संयम त्याग सेवा आदि भावनाओं से परिपूर्ण थी परंतु आज राजनीति मनुष्य भक्षी हो गई है वह हिंसक हो गई है और क्रूर हो गई है
श्रीकांत वर्मा जी ने सामाजिक और राजनीतिक हिंसा का पुरजोर विरोध किया है उनके अनुसार हमारा समय बहुत ही जटिल चल रहा है इतना जटिल की कविता लिखना भी मुश्किल हो रहा है वे अपनी कविताओं के माध्यम से कहते हैं कि घृणा नहीं प्रेम करो
साठोत्तरी भाव बोध और श्रीकांत वर्मा
सन 1960 के बाद के समय को हिंदी साहित्य का साठोत्तरी काल कहा जाता है यह काल था नई कविताओं का काल श्रीकांत वर्मा जी की कविताओं में विद्रोह और अराजकता के स्वर प्रधान है इसीलिए उनकी कविताएं साठोत्तरी भाव बोध को मानती हैं उनकी बहुत सारी कविताओं में सजता है एवं जनवादी चेतना की भी धारा प्रवाहित होती है श्रीकांत वर्मा जी की कविताओं में साठोत्तरी भाव बोध इसीलिए है क्योंकि उनकी कविताओं में भी असंतोष और स्वीकृति और विरोध का स्वर साफ-साफ उभरा है स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की भारत में अनेकानेक परिवर्तन की लहरें उठ रही थी लहरों को सही दिशा देने के लिए कभी उन्हें आंदोलन छेड़ रखा था और श्रीकांत वर्मा जी इस आंदोलन के प्रमुख कवि रहे
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